RANCHI: पश्चिम बंगाल की शारदा ग्रुप ने ही महज चार साल में पश्चिम बंगाल के अलावा झारखंड, ओडि़शा और नॉर्थ ईस्ट राज्यों में अपने 100 ऑफिस खोल लिए थे.
क्या है चिटफंड कंपनी
चिटफंड एक्ट, 1982 के मुताबिक, चिटफंड स्कीम का मतलब होता है कोई शख्स या लोगों का ग्रुप एक साथ समझौता करे. इस समझौते में एक निश्चित रकम या कोई चीज तय वक्त पर किश्तों में जमा की जाए और तय वक्त पर उसकी नीलामी की जाए. जो फायदा हो बाकी लोगों में बांट दिया जाए. इसमें बोली लगानेवाले शख्स को पैसे लौटाने भी होते हैं. नियम के मुताबिक, ये स्कीम किसी संस्था या फिर व्यक्ति के जरिए आपसी संबंधियों या फिर दोस्तों के बीच चलाया जा सकता है. हालांकि, आम तौर पर ऐसा नहीं होता है. ये चिटफंड स्कीम कब पॉन्जी स्कीम में बदल जाती हैं, कोई नहीं जानता. आमतौर पर चिट फंड कंपनियां इस काम को मल्टीलेबल मार्केटिंग में तब्दील कर देती हैं.
मल्टीलेबल मार्केटिंग यानी अगर आप अपने पैसे जमा करते हैं साथ ही अपने साथ और लोगों को भी पैसे जमा करने के लिए लाते हैं, तो मोटे मुनाफे का लालच. ऐसा ही बाजार से पैसे बटोरकर भागने वाली चिटफंड कंपनियां भी करती हैं. वो लोगों से पैसे जमा करवाती है. साथ ही अन्य लोगों को भी लाने के लिए कहती हैं. बाजार में फैले उनके एजेंट साल, महीने या फिर दिनों में जमा पैसे पर दोगुने या तिगुने मुनाफे का लालच देते हैं.
किसको फंसाते हैं?
चिटफंड कंपनियां पंजीकृत नहीं होतीं. वे रिक्शा चलानेवाले, दिहाड़ी मजदूरी करने से लेकर भीख मांगनेवाले, ठेला-खोमचा वाले, छोटे-मोटे दुकानदारों जैसे तमाम लोगों को सब्ज बाग दिखाकर रोजाना मामूली रकम जमा करने के लिए राजी कर लेती हैं. चूंकि ऐसे निवेश को कोई कानूनी संरक्षण नहीं होता है. ये कंपनियां अपनी वसूली आदि से जुड़ी जानकारियां दुरुस्त रखने के लिए बाध्य नहीं होती. फर्जी कागजात के जरिए सारा कारोबार चलता है.