प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह के ताजा हमले से बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आहत हैं। मोदी का कहना है कि बंगाल में परिवर्तन के नाम पर सिर्फ ममता बनर्जी में परिवर्तन हुआ है। अब वो शहंशाह बन गई हैं। बंगाल में उद्योग धंधे चौपट हो गए हैं। जगह-जगह बम बनाने की फैक्ट्री लगी हुई है। 34 साल में लेफ्ट ने बंगाल को बरबाद किया। ममता ने 5 सालों में ही बंगाल को तबाह कर दिया है। लेफ्ट और कांग्रेस से अपने दम पर लड़ रही ममता बनर्जी को उम्मीद नहीं थी कि बीजेपी की ओर से भी उसे कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ेगा।
तृणमूल कांग्रेस के साथ बीजेपी के दोस्ताना रिश्ते की बात छुपी नहीं है। बीजेपी को उम्मीद थी कि बंगाल में गुपचुप गठबंधन या फिर ममता की पीठ पर सवारी कर वो अपनी पकड़ और मजबूत कर लेगी। लेकिन ममता ने भांप लिया कि ऐसा करने से अल्संख्यक वोटों का भारी नुकसान हो सकता है। लिहाजा ममता ने बीजेपी से दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझी और बीजेपी को खरी-खोटी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहीं हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों में करीब 17 फीसदी वोट हासिल करने वाली बीजीपी शायद इस अपमान को पचा नहीं पा रही है और उसने ममता का खेल बिगाड़ने की ठान ली है।
दरअसल, अंदरखाने में दोस्ताना संघर्ष की बात कर ममता बनर्जी बीजेपी-संघ के वोटरों को कन्फ्यूज करना चाहती थी, ताकि उसे इसका भरपूर फायदा मिल सके। लेकिन 2011 के विधानसभा चुनाव में अपना खाता तक ना खोल पाने वाली बीजेपी को ये बहुत नागवार गुजरी। बीजेपी हर हाल में अपना वोट बैंक बचाना चहती है ताकि बीते विधानसभा चुनाव की तरह उसे अपमानित ना होने पड़े। और दूसरे, आगामी लोकसभा चुनावों में वो अपने प्रदर्शन को और बेहतर कर सके। हालांकि इसका फायदा बीजेपी को कम, लेफ्ट फ्रंट-कांग्रेस गठबंधन को ज्यादा मिलता नजर आ रहा है। बंगाल में त्रिकोणीय मुकाबले के इसी समीकरण को महसूस करते हुए ममता बनर्जी पूरे आवेग के साथ लेफ्ट फ्रंट, कांग्रेस और बीजेपी पर एकसाथ कड़े हमले बोलती नजर आ रही हैं।
बंगाल के ताजा घटनाक्रमों के बाद तृणमूल का मां, माटी, मानुष का नारा भी कमजोर पड़ता नजर आ रहा है। शारदा चिटफंड घोटाले के बाद सामने आए स्टिंग ऑपरेशन ‘नारदा’ ने रही सही कसर पूरी कर दी है। स्टिंग ऑपरेशन को फर्जी बताने वाली ममता बनर्जी अपनी कमजोरी छिपाने के लिए आज ज्यादा आक्रामक नजर आ रहीं है। ममता सीपीएम पर बढ़-चढ़कर हमले बोल रही है। लेफ्ट-कांग्रेस के तालमेल या गठबंधन को अनैतिक बता रही हैं। लेकिन वो भूल रहीं हैं कि बीते विधानसभा चुनावों में उन्होंने भी लेफ्ट के सफाये के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाया था। और कांग्रेस के 10 फीसदी वोटों के स्थानांतरण की वजह से ही लेफ्ट फ्रंट को मात देने में कामयाब हुईं थीं।
बंगाल में आज तृणमूल को लेफ्ट और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से विरोध का सामना करना पड़ रहा है। ताजा हिंसा की घटनाएं इसी का नतीजा है। ममता बनर्जी की असली चिंता पश्चिम बंगाल में भय के वातावरण के घटते प्रभाव को लेकर है। चुनाव आयोग ने बिहार के तर्ज पर भयमुक्त वातावरण में चुनाव कराने का बीड़ा उठाया है। अगर लोग मतदान केंद्रों तक पहुंच रहे हैं और अपनी मर्जी से वोट डाल पा रहे हैं तो ये तृणमूल के लिए निश्चित तौर पर अच्छी खबर नहीं है। क्योंकि 2011 के बाद बंगाल में राजनीतिक स्थिति में काफी बदलाव आया है।
2011 के चुनावों में नंदीग्राम और सिंगूर की वजह से माहौल पूरी तरह से लेफ्ट के खिलाफ था। लेफ्ट के ज्यादातर चुनाव मैनेजरों ने मौके की नजाकत को भांपते हुए पाला बदल लिया था। लेकिन बीते 5 सालों में नंदीग्राम और सिंगूर के हालात में कोई बदलाव नहीं आया है। सिंगूर में आधी-अधूरी नैनो फैक्ट्री का ढांचा खड़ा है। लोग आज भी मुआवजे और नौकरी का इंतजार कर रहे हैं। प्रदेश में दूसरे उद्योग-घंधों का भी बुरा हाल है। लेफ्ट फ्रंट के खिलाफ लोगों का गुस्सा आज कहीं नजर नहीं आता। ऐसे में लेफ्ट फ्रंट से तृणमूल पहुंचे चुनाव मैनेजरों ने फिर से पाला नहीं बदला है, इसकी कोई गारंटी नहीं है। दरअसल, सत्तालोलुप लोग चुनाव के वक्त हवा का रूख जल्दी भांप लेते हैं और फैसला करने में ज्यादा देर नहीं करते।
कांग्रेस से हाथ मिलाने के बीद लेफ्ट की ताकत ही नहीं, बल्कि स्वीकार्यता भी निश्चित तौर पर बढ़ी है। वहीं बीजेपी के ताजा हमले ने तृणमूल को कमजोर किया है। अल्पसंख्यक वोट बैंक फिर से लेफ्ट और कांग्रेस पर ज्यादा भरोसा करता दिख रहा है। ममता इस चुनाव में या तो हमलावर या सफाई देती नजर आ रहीं हैं। उसका ज्यादा समय वोटरों को ये बताने में बीत रहा है कि नारदा के सहारे उसकी पार्टी को बदनाम करने की साजिश रची गई है। लेकिन चिटफंड घोटाला और नोटों की गड्डी लेते सांसदों की तस्वीर को वोटरों के मन-मिजाज से मिटाना इतना आसान नहीं है। जिन लाखों लोगों की गाढ़ी कमाई शारदा चिटफंड घोटाले में डूब गए, वो आज भी अपने पैसे की वापसी का इंतजार कर रहे हैं।
ममता की मजबूरी ये है कि उन्हें उन्हीं ताकतों पर भरोसा करना पड़ रहा है, जिन्हें शारदा चिटफंड घोटाले के बाद दरकिनार कर दिया गया था। मुकुल राय और मदन मित्रा जैसे लोग फिर से चुनाव में ममता के लिए बड़ी भूमिका निभाते नजर आ रहे हैं। ममता बनर्जी को इसका फायदा होगा या नुकसान, इसका अंदाजा लगना मुश्किल नहीं है। बढ़-चढ़कर विरोधियों पर हमले के सिवाय ममता के पास आज ज्यादा विकल्प नहीं है। लिहाजा वोटों के बिखराव का सबसे ज्यादा नुकासन तृणमूल को ही होता नजर आ रहा है।